Tuesday, August 11, 2009

तप

अग्नि से मुझको डर नहीं लगता
खुद अग्नि बन जलती हूँ;
ज्वाला हूँ पर तेरी लगन में
ज्योति बन मैं जलती हूँ;
तुम जग के मेले में खोए
मैं तेरे नाम की माला जपती हूँ ॥

दो पल का अहसास नहीं
है तप यह मेरे जीवन का;
है मधुर मिलन की आस यहीं
होगा संगम इस तन-मन का ॥

तुम से मिले तो ऐसे मिले
ज्यों धरती-अंबर मिलते हैं;
मन मंदिर में ऐसे खिले
ज्यों पारिजात वन में खिलते हैं ।

2 comments:

M VERMA said...

मन मंदिर में ऐसे खिले
ज्यों पारिजात वन में खिलते हैं ।
बेहद नाज़ुक और खूबसूरत एहसास है.
सुन्दर रचना

रविंद्र "रवी" said...

तुम से मिले तो ऐसे मिले
ज्यों धरती-अंबर मिलते हैं;

हम तो आपकी कविताये पढ़कर पागल हो रहे है रितुजी. बस लिखते रहिये.