तेरी राह देखते-देखते पथरा-सी गई हूँ मैं,
अंतर में अंगार लिए जड़ हो गई हूँ मैं ।
अपनी धरती से जुड़ आज उठ रही हूँ ऊपर
जड़ें बाहर जो दिखतीं हैं -
वो नहीं ।
जड़ें वो हैं जो मेरे अंदर से निकलीं हैं ।
विष्णु की तरह मेरे अंतर के कमल पर
तुम ब्रह्मा बन खिल रहे हो ।
महान हो भले तुम
मगर याद रखो
मेरे बिना अस्तित्व नहीं तुम्हारा ।
चलायमान तुम
थक जाओगे
सच खोजते-खोजते ।
मैं एक जगह खड़ी
अपने अंतर में ही
सत्य पा जाऊंगी ।
ठहरी हूँ
पर पड़ाव है यह
नदिया को कौन रोक पाया है ?
स्त्री निष्क्रिय,
पुरुष सक्रिय,
मगर क्या खोज रहे हो तुम?
सत्य वह नहीं - जो बाहर है ।
सत्य तुम्हारे ही अंतर में छुपा है
क्षण भर रुको
ठहरो ।
© 27 July 2009 .
जियाकोमेती
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