Thursday, August 20, 2009

पंजाब: कल्चर और एग्रीकल्चर

मैं सबसे पहले इन्सान और फिर भारतीय हूँ । मगर सच यह भी है कि मैं पंजाब से हूँ - एक ऐसा राज्य जिसे पाँच नदियों ने माँ बन अपने प्यार से सींचा है । कई साल हुए मैं इन्सान और भारतीय होने को तो बहुत महत्त्व देती थी मगर पंजाब से प्यार और लगाव के बावजूद कुछ ख़ास जज़्बा नहीं था । मुझे इस बात का गर्व था कि मैं एक ऐसे छोटे से राज्य से हूँ जिसके पास बहुत कम ज़मीन है और प्राकृतिक संसाधन भी कुछ अधिक नहीं हैं मगर जहाँ के लोगों के मेहनती स्वभाव के कारण यह राज्य भारत के सबसे संपन्न राज्यों में से एक था । इतनी कम धरती पर खेती कर हमने सोना उपजाने की कला में महारत हासिल की थी । हमारे देश-प्रेम को किसी भी प्रमाणपत्र की ज़रूरत नहीं थी क्यों कि सदियों से हमारे पूर्वज इसका प्रमाण देते आए थे । हम खुद को अलग नहीं समझते थे क्योंकि हम भारतीय थे और इस धरती के आत्मसम्मान की रक्षा के लिए हमारे पूर्वजों ने कई कुर्बानियां दीं थीं । मगर फिर कई लोगों से सुना कि पंजाब में एग्रीकल्चर तो है पर कल्चर नहीं है! यह सच नहीं मगर आप किसी के मुँह पर ताला तो नहीं लगा सकते । शायद हमारे कल्चर को लोग समझ नहीं पाए या फिर हमने ही लोगों तक इसे पहुंचाना ज़रूरी नहीं समझा । हमारा कल्चर सबसे पहले एकता का था, भाईचारे का था और आत्मसम्मान का था । हम भूल नहीं सकते कि पश्चिम में होने के कारण कई आक्रमणकारी सबसे पहले पंजाब - राजस्थान की तरफ़ से आए । हमें कहाँ समय था कि हम पल भर को आराम करें । हमें तो इनसे अपना देश बचाना था । फिर भी ऐसा नहीं कि हमारे अपने त्योहार न हों या साहित्यिक ग्रंथ न हों । हमने तलवारों की छाँव में कविताएं रचीं और प्यार का संदेश दुनिया को दिया ।
मगर कुछ लोगों के इस विचार का जवाब देने के लिए यह समझना ज़रूरी है कि आखिर कल्चर या संस्कृति क्या है । क्या यह नृत्य-संगीत है? तो क्या पंजाब में संगीत की कमी है? सोचिए कई दशकों तक हिंदी फ़िल्में भी जिस संगीत व नृत्य से सराबोर रहीं और जहाँ का नृत्य व संगीत सारी दुनिया में जोश से भरे भारत का प्रतीक बन गया था, क्या वहाँ इनकी कमी है? कविताएं? क्या पंजाब में कवि नहीं हुए? आपने हीर तो देखी होगी । हीर-राँझा की कहानी एक कविता के रूप में वारिस शाह ने लिखी थी । शायद कुछ ही लोगों को पता हो कि पंजाबी के पहले कवि कौन थे । उनका नाम था बाबा फ़रीद । और फिर बुल्ले शाह को कैसे भूल सकते हैं? आज भी उनकी लिखी काफ़ी पंजाब में गाईं व सुनीं जातीं हैं ।
पंजाब में भी कवि-सम्मेलन और मुशायरे होते हैं । पंजाबी कविता से मेरा पहला परिचय मेरी माँ ने कराया था । नहीं मुझे कविताओं की किताब नहीं मिली थी । मुझे एक कविता सुनाई थी मेरी माँ ने । यह पहला परिचय था - मेरा और पंजाबी कविता का । पंजाबी भाषा की मिठास, हाँ मिठास जो यूं ही कही बात को कविता बना देती है । अजीब लगा न? मगर सोचें कि कितनी ही पंजाबी कविताएं व गीत दरअसल बात-चीत के ढंग से लिखे गए हैं और फिर भी दिल को छूने की क्षमता रखते हैं । उनमें गीत-संगीत की कमी नहीं ।
क्या भगत सिंह की घोड़ी एक अनुपम रचना नहीं? या फिर शिव कुमार बटालवीअमृता प्रीतम कवि नहीं? भले ही हम अपनी मेहनत, हिम्मत और मिट्टी को सोना बनाने की क्षमता के लिए जाने जाते हों लेकिन तलवारों की छाँव में भी हमारे मुख से गीत निकलते हैं । हम इस धरती को माँ समझ उसकी तन-मन-धन से सेवा कर उसी पर न्यौछावर होने वाले हैं मगर हमने सर्व-धर्म समभाव को एक नया अर्थ दिया - गुरबानी के रूप में । गुरू ग्रंथ साहब जो हिंदु-मुस्लिम नामक गंगा-यमुना को सरस्वती बन संगम प्रदान करती है । अगर हम अपनी धरती के लिए जान देना जानते हैं तो शांति का संदेश देती गुरबानी रोज़ गूंजती है हमारे गाँवों और शहरों में । यह है खूबसूरती पंजाब की... यह है पंजाब का कल्चर । देश-प्रेम और संस्कृति, तलवार और शांति का ऐसा अनूठा संगम और कहाँ मिलेगा ?
मगर यह सच है कि पंजाब भारत की रग-रग में ऐसे घुल गया है कि महसूस ही नहीं होता कि यह अलग संस्कृति है । हमने सर्वस्व समर्पित कर भारत के दिल में जगह बनाई है । पंजाब अनोखा है, दुनिया हिंदू और सिख को अलग धर्म मानती है मगर पंजाब के दिल में झांक कर देखें । "हिंदू" अगर गुरद्वारे जाता है तो "सिख" भी चंडी पाठ करता है । वैष्णो देवी जाने वाले भक्तों में कितने हिंदू और कितने सिख हैं, गिन कर देखें? हम खुद को जानते हैं और पहचानते हैं अपने अस्तित्व को । हमने प्यार को जाना है और सर्वस्व समर्पित कर घुल गए हैं भारत में और भले ही हम नहीं भूले कविता और तलवार का अपना इतिहास मगर ऊंचे स्वर में चिल्लाने की ज़रूरत हमें महसूस नहीं होती क्योंकि हम खुद को जानते हैं । हमारे अस्तित्व को किसी प्रमाणपत्र की कोई ज़रूरत नहीं । यही है पंजाब का कल्चर ।

1 comment:

अजित गुप्ता का कोना said...

ॠतु जी

आपकी पोस्‍ट का टायटल देखकर ही आपकी पोस्‍ट पर आयी। मुझे लगता है कि आपने भी संस्‍कृति का अर्थ नहीं समझा, यदि समझ लेती तो इस मजाक वाली उक्ति को यूं ना लेती। संस्‍कृति का अर्थ होता है प्रकृति को संस्‍कारित करना। अर्थात मानसिक रूप से समर्थ होना। पंजाब जितना सुसंस्‍कृत है उसके लिए किसी उदाहरण की आवश्‍यकता नहीं है। वास्‍तविक संस्‍कृति यहीं बसती है। हमारी संस्‍कृति का मूल मंत्र है कि हम अपने आपको इतना संस्‍कारित करेंगे कि इस चराचर जगत का संरक्षण करने में सक्षम बने। पंजाब हमारा सरमौर है। किसी सिरफिरे ने कुछ कह दिया और आपने दिल से लगा लिया। एक बार मैं गंगानगर गयी थी और अभी दो दिन पहले ही पंजाब जाकर आयी हूँ, वहाँ पर भी एक राजनेता ने ऐसी ही टिप्‍पणी कर दी थी कि लोग हमारे बारे में ऐसा कहते हैं। तब मैंने कहा था कि हम अन्‍न उपजाते है और सारे संसार का पेट पालते हैं, हमारे यहाँ परिवार प्रथा आज भी न केवल जीवित है अपितु स्‍वस्‍थ रूप से है। अत: सच्‍ची संस्‍कृति तो पंजाब में ही शेष है। मेरे इस कथानक को प्रेस ने बाक्‍स बनाकर छपा था। आप निराश न हो, हमें पंजाब पर गर्व है, और प्रत्‍येक भारतवासी को है।