आज अनायास ही रामायण का एक प्रकरण याद आ गया –
हनुमान जी सीता माँ को ढूँढने रावण के रनिवास में जाते हैं । वहाँ रनिवास की स्त्रियों को सोते देख उन्हें
खुद को ग्लानि होने लगती है। हालांकि वे
कुछ गलत नहीं कर रहे । उनके मन में कोई कुविचार नहीं है । पर फिर भी वे स्वयं को
समझाते हैं कि सीता माँ को स्त्रियों के बीच नहीं तो क्या हिरनियों के मध्य खोजा
जाए ?
सीता जी तो रावण के महल में भी सुरक्षित थीं और हम रावण को राक्षस कहते हैं
। अब स्वयं सोचें ऐसे लोगों को क्या कहा
जाए जो सरेआम गलत हरकतें करते हैं और फिर दोष देते हैं पाश्चात्य सभ्यता को और
लड़कियों के पहनावे को ।
और इनसे तुलना करें आज के हिन्दू नवयुवकों की । परस्त्री में माँ, बहन नहीं दिखायी देती इन्हें
। इनकी नज़रों में न श्रद्धा है, न आदर
। केवल वासना ही इनका अस्तित्व है । और यह केवल इन्हीं तक सीमित नहीं है । जिन वृद्ध लोगों को इनका मार्गदर्शन करना चाहिए
वे ऐसा न कर ऊटपटांग वक्तव्य दे रहे हैं ।
स्वयं को हिन्दू कहने वाले हिन्दू शब्द का अर्थ और हिन्दू संस्कृति ही भूल
बैठे हैं ।
आज कुछ लोग स्त्रियों पर अत्याचार की घटनाओं के लिए स्त्रियों के पहनावे,
चाल-चलन या और कुछ नहीं तो भोजन को ही ज़िम्मेदार ठहरा रहे हैं । यह तो अपनी ज़िम्मेदारियों से नज़र चुराना हुआ
। पलायन न करें, धर्म-परायण बनें । और धर्म दूसरे पर निर्भर नहीं करता । यह हमारा आंतरिक चरित्र है ।
धर्म क्या है ? यह अंग्रेज़ी शब्द
रिलीजियॅन नहीं है । हम हिन्दुओं के लिए
तो धर्म का अर्थ है – कर्त्तव्य ।
हिन्दू धर्म नहीं है – यह संगम है कई धर्मों का । हमें बताया जाता है – राज धर्म, ब्राह्मण धर्म,
पति धर्म, पत्नी धर्म, सेवक धर्म...
पर क्या हम अपने सभी धर्मों का पालन कर रहे हैं ?
No comments:
Post a Comment