Wednesday, December 19, 2012

हिन्दू और नारी का सम्मान

आज अनायास ही रामायण का एक प्रकरण याद आ गया –
हनुमान जी सीता माँ को ढूँढने रावण के रनिवास में जाते हैं ।  वहाँ रनिवास की स्त्रियों को सोते देख उन्हें खुद को ग्लानि होने लगती है।  हालांकि वे कुछ गलत नहीं कर रहे । उनके मन में कोई कुविचार नहीं है । पर फिर भी वे स्वयं को समझाते हैं कि सीता माँ को स्त्रियों के बीच नहीं तो क्या हिरनियों के मध्य खोजा जाए ? 
सीता जी तो रावण के महल में भी सुरक्षित थीं और हम रावण को राक्षस कहते हैं ।  अब स्वयं सोचें ऐसे लोगों को क्या कहा जाए जो सरेआम गलत हरकतें करते हैं और फिर दोष देते हैं पाश्चात्य सभ्यता को और लड़कियों के पहनावे को ।
और इनसे तुलना करें आज के हिन्दू नवयुवकों की ।  परस्त्री में माँ, बहन नहीं दिखायी देती इन्हें ।  इनकी नज़रों में न श्रद्धा है, न आदर ।  केवल वासना ही इनका अस्तित्व है ।  और यह केवल इन्हीं तक सीमित नहीं है ।  जिन वृद्ध लोगों को इनका मार्गदर्शन करना चाहिए वे ऐसा न कर ऊटपटांग वक्तव्य दे रहे हैं ।  स्वयं को हिन्दू कहने वाले हिन्दू शब्द का अर्थ और हिन्दू संस्कृति ही भूल बैठे हैं । 
आज कुछ लोग स्त्रियों पर अत्याचार की घटनाओं के लिए स्त्रियों के पहनावे, चाल-चलन या और कुछ नहीं तो भोजन को ही ज़िम्मेदार ठहरा रहे हैं ।  यह तो अपनी ज़िम्मेदारियों से नज़र चुराना हुआ ।  पलायन न करें, धर्म-परायण बनें ।  और धर्म दूसरे पर निर्भर नहीं करता ।  यह हमारा आंतरिक चरित्र है । 
धर्म क्या है ?  यह अंग्रेज़ी शब्द रिलीजियॅन नहीं है ।  हम हिन्दुओं के लिए तो धर्म का अर्थ है – कर्त्तव्य । 
हिन्दू धर्म नहीं है – यह संगम है कई धर्मों का ।  हमें बताया जाता है – राज धर्म, ब्राह्मण धर्म, पति धर्म, पत्नी धर्म, सेवक धर्म...
पर क्या हम अपने सभी धर्मों का पालन कर रहे हैं ?




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