तेरी राह देखते-देखते पथरा सी गयी हूँ मैं,
अपनी धरती से जुड़ आज उठ रही हूँ ऊपर ।
जड़ें बाहर जो दिखतीं हैं वे नहीं,
जड़ें वे हैं जो मेरे अंदर से निकलीं हैं ।
ब्रह्मा की तरह मेरे अंतर के कमल पे तुम
विष्णु बन खिल रहे हो;
महान हो भले तुम
मगर याद रखो
मेरे बिना अस्तित्व नहीं तुम्हारा ।
चलायमान तुम थक जाओगे,
सच खोजते-खोजते ।
मैं एक जगह खड़ी
अपने अंतर में ही सत्य पा जाऊँगी ।
ठहरी हूँ
पर पड़ाव है यह,
नदिया को कौन
रोक पाया है ?
स्त्री निष्क्रिय
पुरुष सक्रिय
मगर खोज क्या रहे हो तुम ?
सत्य वह नहीं जो बाहर है,
सत्य तुम्हारे ही अंतर में है छुपा ।
क्षण भर रुको,
ठहरो
और पा जाओ जो है तुम्हरा ।
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